दयानंद सरस्वती
दयानंद सरस्वती
| |
![]() | |
पूरा नाम | स्वामी दयानन्द सरस्वती |
जन्म | 12 फरवरी, 1824 |
जन्म भूमि | मोरबी, गुजरात |
मृत्यु | 31 अक्टूबर, 1883 [1] |
मृत्यु स्थान | अजमेर, राजस्थान |
अभिभावक | अम्बाशंकर |
गुरु | स्वामी विरजानन्द |
मुख्य रचनाएँ | सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि। |
भाषा | हिन्दी |
पुरस्कार-उपाधि | महर्षि |
विशेष योगदान | आर्य समाज की स्थापना |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | दयानंद सरस्वती के प्रेरक प्रसंग |
अन्य जानकारी | दयानन्द सरस्वती के जन्म का नाम 'मूलशंकर तिवारी' था। |
अद्यतन |
12:32, 25 सितम्बर 2011 (IST)
|
परिचय
प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात की छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण पुत्र का नाम मूलशंकर रखा गया। मूलशंकर की बुद्धि बहुत ही तेज़ थी। 14 वर्ष की उम्र तक उन्हें रुद्री आदि के साथ-साथ यजुर्वेद तथा अन्य वेदों के भी कुछ अंश कंठस्थ हो गए थे। व्याकरण के भी वे अच्छे ज्ञाता थे। इनके पिता का नाम 'अम्बाशंकर' था। स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। यह बड़े मेधावी और होनहार थे। शिवभक्त पिता के कहने पर मूलशंकर ने भी एक बार शिवरात्रि का व्रत रखा था। लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक चुहिया शिवलिंग पर चढ़कर नैवेद्य खा रही है, तो उन्हें आश्चर्य हुआ और धक्का भी लगा। उसी क्षण से उनका मूर्तिपूजा पर से विश्वास उठ गया। पुत्र के विचारों में परिवर्तन होता देखकर पिता उनके विवाह की तैयारी करने लगे। ज्यों ही मूलशंकर को इसकी भनक लगी, वे घर से भाग निकले। उन्होंने सिर मुंडा लिया और गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं:महत्त्वपूर्ण घटनाएँ
स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :- चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),
- अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय।
- इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्न्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।
शिक्षा
बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात ये सन्न्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई।
दयानन्द सरस्वती
Dayanand Saraswati
Dayanand Saraswati
स्वामी विरजानन्द के शिष्य
सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद मूलशंकर , जो कि अब स्वामी दयानन्द सरस्वती बन चुके थे, मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। दयानन्द ने उनसे शिक्षा ग्रहण की। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं।हरिद्वार में
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द ने अपना शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने ‘पाखण्डखण्डिनी पताका’ फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वे निरा ढोंग मानते थे। छूत का उन्होंने ज़ोरदार खण्डन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से 1875 तक देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में आपने मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और देखते ही देखते देशभर में इसकी शाखाएँ खुल गईं। आर्यसमाज वेदों को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है।- हिन्दी में ग्रन्थ रचना
आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही स्वामी जी ने हिन्दी में ग्रन्थ रचना आरम्भ की। साथ ही पहले के संस्कृत में लिखित ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया। ‘ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका’ उनकी असाधारण योग्यता का परिचायक ग्रन्थ है। ‘सत्यार्थप्रकाश’ सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अहिन्दी भाषी होते हुए भी स्वामी जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्द थे - ‘मेरी आँखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा को बोलने और समझने लग जायेंगे।’ अपने विचारों के कारण स्वामी जी को प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर मारे गए, विष देने के प्रयत्न भी हुए, डुबाने की चेष्टा की गई, पर वे पाखण्ड के विरोध और वेदों के प्रचार के अपने कार्य पर अडिग रहे।
इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा दक्षिण भारत, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्य कार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।
No comments:
Post a Comment